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वनौषधि शतक

वैद्य दुर्गा प्रसाद शर्मा

प्रकाशक : वैद्यनाथ प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15795
आईएसबीएन :0

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लेखक के दो शब्द

गत धन्वतरि-जयन्ती के अवसर पर ही श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन प्रा० लि० के प्रकाशन-विभाग का प्रस्ताव हुआ कि बिहार-राज्य आयुर्वेद-यूनानी अधिकाय के दीक्षान्त-समारोह के अवसर पर ‘वनौषधि-शतक’ नामक पुस्तक प्रकाशित कर दी जाय। यों मेरा तो पहले से ही यह विचार था कि इस प्रकार की एक पुस्तक लिखी और प्रकाशित की जानी चाहिए। यह स्वाभाविक है कि ऐसी पुस्तक वैद्य-समाज एवं जन-समाज दोनों ही के लिए उपयोगी हो सकती है। किन्तु, मेरा विशेष ध्यान इस पुस्तक को जनोपयोगी बनाने का ही था, क्योंकि हमारी जनता अपनी वनौषधियों को तथा उनके महत्व को भूलती जा रही है। प्रायः आयुर्वेद के विद्यार्थियों को भी यह शिकायत रही है कि उन्हें वनौषधियों के सचित्र परिचय प्रायः उपलब्ध नहीं हो पाते। और, देश में जो थोड़े-से वनौषधि-उद्यान हैं वे भी नाम मात्र के ही हैं क्योंकि उनमें बहुत थोड़ी-सी वनौषधियाँ मिल पाती हैं।

समय कम था और मेरी व्यस्तता भी बहुत थी। इसी बीच बिहार-राज्य आयुर्वेद-यूनानी अधिकाय का अध्यक्ष होने के नाते मुझे दीक्षान्त-समारोह की तैयारी में भी व्यस्त हो जाना पड़ा। परन्तु ‘वनौषधि-शतक सम्बन्धी’ कुछ काम मैंने पहले से ही कर रक्खा था और कुछ चित्र भी बने हुए थे।

किसी विशिष्ट विचारक ने ठीक ही कहा है कि संसार के बड़े-से-बड़े काम भी प्रायः जल्दबाजी में ही होते हैं और इतमीनान की माँग प्रायः आलसी लोग ही करते हैं। अतः मैं कृतसंकल्प हो गया कि निर्धारित अवधि के भीतर इस कार्य को कर ही डालना है। परिश्रम को असाधारणरूप से करना पड़ा और प्रायः कठिन परिश्रम करना पड़ा। किन्तु मुझे स्व० पिताजी, पूजनीया माताजी, श्रद्वेय विद्वान् चाचाजी वैद्यराज पं० रामनारायणजी शर्मा, अनुभवी तथा स्वस्थ चिन्तक अग्रज पं० हजारी लाल जी शर्मा एवं समस्त गुरुजनों के आशीर्वादों का बड़ा भरोसा था। और मुझे प्रसन्नता है कि निर्धारित अवधि के भीतर संकल्प पूरा हो गया। जो कुछ भी और जैसा कुछ भी बन पड़ा वह कृपालु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।

चित्रों के सम्बन्ध में तो काफी कठिनाई हुई। मेरा विचार था कि प्रत्येक वनौषधि के प्राकृतिक चित्र दिए जायँ, जिनमें उन के सभी रंग यथास्थान आ जायँ। अवश्य ही बहुत-सी वनस्पतियों के इस प्रकार के पूर्ण एवं स्वाभाविक चित्र इस पुस्तक में प्रकाशित हो सके है। परन्तु शीघ्रता एवं समयाभाव के कारण कई वनौषधियों के इकरंगे चित्र ही सम्भव हो सके है। और थोड़ी-सी वनस्पतियों के चित्रों के तो ब्लॉक ही समय पर न बन सके जिसके कारण उन्हें अचित्र ही प्रकाशित करना पड़ा। समयाभाव तथा चित्र-सम्बन्धी कठिनाइयों के कारण वनौषधियों के चयन में भी चित्रों की सुलभता-दुर्लभता का ध्यान रखना पड़ा।

किन्तु हमारे सदय पाठक देखेंगे कि इस पुस्तक की खास लोक-सार्थकता है, वनौषधि-सम्बन्धी अन्य पुस्तकों की अपेक्षा चित्रों का अनुपात भी अधिक है और बहुरंगे चित्रों का अनुपात तो और भी अधिक है। फिर भी, समयाभाव के कारण जो चित्र इकरंगे रह गए अथवा जो प्रकाशित ही न हो सके उनके लिए मैं दुःखी हूँ और सहृदय पाठकों से, इस त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

इसी प्रकार, जल्दबाजी में लेखन-मुद्रण के जो दोष रह गए हैं उनके लिए भी मैं उदार पाठकों से क्षमायाचना करता हूँ। ‘गणाः दर्शनीयाः न तु दोषाः। ‘अतएव मैं आश्वस्त हूँ कि विचारवान पाठक पुस्तक की उपयोगिता एवं विशेषताओं की दृष्टि से इस पर विचार करेंगे न कि त्रुटियों की दृष्टि से।

मैं कविराज पं० सभाकान्त झा शास्री जी का बहुत ही आभारी हूँ कि उन्होंने पुस्तक के मुद्रण एवं चित्रांकन में पर्याप्त तत्परता दिखायी है। इसी प्रकार मैं जनवाणी प्रिंटर्स एण्ड पब्लिशर्स के व्यवस्थापक श्री ज्ञानेन्द्र शर्मा जी का भी अतिशय कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने इस पुस्तक को यथासाध्य तत्परता एवं सुन्दरता से मुद्रित कराया है और महीनों का काम सप्ताहों में ही पूरा कर दिया है।

यत्साधितं तत्समर्पितं-बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय ‘कथमधिकं’ विज्ञेभ्यः।

जय वनौषधि ! जय आयुर्वेद

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